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समर्थन मूल्य से भी बेहतर मूल्यांकन करने की दरकार

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विमलशंकर झा

युगांतरकारी कथाकार प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास गोदान में  मुफलिसी और शोषण के चक्र में छटपटाता किसान होरी का दर्द रिसता है कि जब खेत बोने के बाद बादल ही साथ नहीं देंगे, हमारे पास पूरी सहूलियतें ही नहीं होंगी और महाजन ही पूरे खेत काट ले जाएगा तो घर परिवार कैसे पलेगा..।

करीबन एक सदी बीतने और और देश के स्वतंत्र होने के बाद भी भारतीय किसान की इस मर्मांतक पीड़ा में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। वह आज भी शोषण के चक्रव्यूह में फंसे होने के साथ अपनी उपज के वाजिब मूल्य और पानी भरे बादलों का इंतजार कर रहा है।
अन्नदाता सरकारों की तमाम घोषणाओं के बाद भी अपनी तकदीर और अन्नभूमि  की तस्वीर बदलने की उसी तरह बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है, जैसे कोई पत्नी परदेश गए अपने दगाबाज पति की बाट जोहती रहती है । केंद्र सरकार द्वारा लंबे इंतजार के बाद धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 2 सौ रुपए क्विंटल वृद्धि किया जाना निश्चित तौर पर किसानों के बेहतर कदम है।
पिछले साल सूखे की मार झेल रहे और फिर बारिश के नहीं होने से निराश छत्तीसगढ़ और कई राज्यों के किसानों के लिए तो यह सौगात राहत के छींटे की तरह है। वक्त पर वर्षा हो जाती है तो इससे आफत से जूझ रहे किसानों को बड़ी राहत मिल सकती है।
देर आयद दुरुस्त आयद तर्ज पर राजनीतिक कारणों से ही सही,मोदी सरकार के इस ऐतिहासिक कदम से मायूसी में डूबे किसानों के चेहरे खिल सकते हैं। केंद्र सरकार ने 2018-19 के लिए धान सहित खरीफ की चौदह फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य( एमएसपी) को मंजूरी दे दी है।
धान की सामान्य प्रजाति का एमएसपी 2 सौ रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है। यह अब 1,550 से 1,750 रुपए प्रति क्विंटल हो गया है, जो अब तक का एक कीर्तिमान है। ग्रेड ए किस्म के धान का सर्मथन मूल्य 180 रुपए बढ़ाकर 1,590 से 1,770 रुपए क्विंटल किया गया है।
धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए सरकार का यह फैसला अहम है। क्योंकि धान प्रदेश की प्रमुख फसल है। राज्य के 45 लाख परिवारों में 35 लाख किसान हैं। इनमें 12 लाख  किसान सहकारी सोसायटियों में समर्थन मूल्य पर धान बेचते हैं।
उनसे  धान खरीदी के 1987 सहकारी केंद्रों में 3 महीने तक अभियान चलाया जाता है। पिछले साल सूखे का संकट झेलने वालेे किसान इस साल फिर बारिश का इंतजार  कर रहे हैं। धान के अलावा ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, अरहर,मूंग, उड़द, मूंगफली, सूर्यमुखी, सोयाबीन और तिल का भी एमएसपी बढ़ाया गया है।
समर्थन मूल्य बढऩे से निश्तित रुप से किसानों को लाभ होगा लेकिन उनकी आमदनी कितनी बढ़ेगी, अर्थ व्यवस्था में मांग के ईजाफे और बिचौलियों के शिकंजे से  उन्हें कैसे बचाया जाएगा, यह सवाल अभी भी किसानों के जहन में है। फिर सरकार ने इसमें एमएसपी में क्या उत्पादन लागत को शामिल किया है?
सरकार का दावा है कि इसमें परिवार के लोगों और मजदूरों की मजदूरी, मवेशी और मशीनों का खर्च, लीज की जमीन का किराया, बीज, खाद और सिंचाई का खर्च शामिल है। लेकिन अपने दावे पर सरकार कितनी खरी उतरती है, यह तो वक्त ही बताएगा। भाजपा ने 2014 में चुनाव प्रचार में एमएसपी किसान के उत्पादन खर्च से 50 फीसदी करने का वादा किया था।
अब फिर 5 महीने  बाद जब विधानसभा और इसके सालभर बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं तो राज्य सरकार ने इस साल किसानों को 3 सौ रुपए बोनस प्रति क्विंटल देने की घोषणा की है। भाजपा नीत सरकार के  समर्थन मूल्य बढ़ाने के निर्णय के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। क्योंकि सामने चुनाव है।
छत्तीसगढ़ में विपक्ष ने समर्थन मूल्य में किसानों से वादाखिलाफी को लेकर सरकार की नाक में दम कर दिया था। लिहाजा सरकार के लिए एमएसपी में बढ़ोत्तरी जरुरी ही नहीं बल्कि सियासी मजबूरी भी हो गई थी। केंद्र सरकार इसे ऐतिहासिक कदम तो  विपक्ष भी इसे वोट बैंक के लिए सियासी हथकंडा बता रहा है।
पीएम मोदी और सीम रमन जहां सर्वाधिक व डेढ़ गुना एमएसपी देने का वादा निभाने की बात कह रहे हैं वहीं कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इसे लालीपाप करार देते हुए कहा है कि यह फैसला 2017-18 के लागत मूल्य के आधार पर किया गया है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव का कहना है कि अटल सरकार ने 6 साल में एमएसपी महज 60 रुपए बढ़ाया है, अब मोदी सरकार 4 साल में 2 सौ रुपए ही बढ़ा पाई है। इस तरह भाजपा सरकार ने 11 साल में धान का समर्थन मूल्य 460 रुपए ही बढ़ा पाई है। जबकि कांग्रेस ने अपने 10 साल में 890 रुपए की वृद्धि की थी।
सत्तापक्ष और विपक्ष के यह सियासी दावे प्रतिदावे आम जनता की तरह किसान सालों से बेबस होकर देख सुन रहा है लेकिन सच्चाई से इस सच्चाई से महज किसान ही नहीं बल्कि सरकारें भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि गाहे बगाहे उनकी इस तरह के  राहत के छींटों से बद से बदतर हो रहे धरतीपुत्रों की बहुत ज्यादा स्थिति सुधरने वाली नहीं है।
खेती किसानी और किसानों के लिए सब्सीडी से लेकर ऋण देने तक की पचासों  बहुप्रचारित लोकलुभावन योजनाओं के सरकार के आत्ममुगधी दावों के बाद भी आज अपना खून पसीना बहाकर देश दुनिया को अन्न खिलाने वाला हमारा किसान आज अपने परिवार का पेट क्यों नहीं भर पा रहा है। उसकी देह फटेहाल क्यों है। बैंकों और  सेठों की दुवारी में उसकी चप्पल क्यों घिस रही है।
सत्तर साल में किसानों के कर्जमाफी से लेकर जीरो ब्याज में लोन देने तक बड़े बड़े दावे करने वाले क्या कांग्रेस भाजपा और दीगर सरकारों के पास इस सवाल का कोई जवाब है कि जब आपने इतनी कृषि क्रांति और किसानों के जीवन स्तर में इतना गजब का बदलाव ला दिया है, तब फिर उसका परिवार क्यों तिल तिल कर मर रहा है और वह आत्महत्या क्यों कर रहा है।
मनमोहन सरकार के समय पी साईनाथ के कर्ज के कारण देश में बढ़ती किसानों की खुदकुशी के मुद्दे पर लंबी बहस हुई थी। आंकड़े दिए गए थे कि पिछले 15 साल में 8 लाख किसान कर्ज से खुदकुशी कर चुके हैं। अभी दो दिन पहले छत्तीसगढ़ में इस मुद्दे पर हुई बहस में वर्ष 16 से 18 के दौरान पौने दो हजार किसानों के राज्य में आत्महत्या करने के आंकड़े पेश किए थे।
लेकिन सरकार जिस दल की हो, उसकी कुचेष्टा कर्ज और सूखे से खुदकुशी को शराब या पारिवारिक या दीगर कारण बताकर अपने पुरुषार्थ पर अक्षमता को छिपाने का काम करती रही हैं। यह कुत्सित प्रयास उनकी सियासी मजबूरी है, इसके लिए वे जनाक्रोश नहीं बल्कि दया की पात्र ज्यादा हैं। सरकार के पास इस सवाल का भीा जवाब नहीं है होता कि उसके बंदरबांट चरित्र के काकसों के किसानों और खेती फैले भ्रष्टाचार के कीट बजट का कितना हिस्सा चट कर जाते हैं।
कर्टेल के कमीशन के फैले जाल के बाद योजनाओं का कितना हिस्सा किसानों और खेतों के लिए बच पाता है। मराठवाड़ा, बुंदेलखंड के किसानों हों चाहे यूपी व  आंध्र के चाहे छत्तीसगढ़ के अन्नदाता हो, शोषण और भ्रष्टाचार की कहानी सभी की एक जैसी है। सरकारें उनसे वोट लेने सियासी खेल तो खेलती हैं लेकिन उनकी विपन्नता बदलने का कोई फार्मूला या इच्छाशक्ति उनके पास नहीं है।
आजादी के पहले प्रेमचंद ने गोदान उपन्यास में हाड़तोड़ मेहनत करने वाले शोषण की चक्की में पिस रहे भारतीय किसान की जिस यातना का बयान किया है वह आजादी के बाद भी नव विकसित माहौल में नए रुप में परवान चढ़ा है। हमारे क्रातिकारी प्रधानमंत्री मोदी अब 2022 तक देश के किसानों की आय दोगुनी करने का जादू दिखाने का राग आलाप रहे हैं। उनके भाई प्रहलाद मोदी जैविक खेती से आय बढ़ाने देशाटन कर रहे हैं।
दुर्ग में जैविक कार्यशाला में किसानों के बीच पहुंचे प्रहलाद मोदी से जब इस स्तंभ के लेखक ने पूछा कि हमारे जिले मुश्किल से एक प्रतिशत और  इसी अनुपात में देश में किसान जैविक खेती करते हैं। आप कब तक इस प्रदेश व देश को सौ फीसदी जैविक खेती में तब्दील करेंगे और किसानों को सातवें वेतनमान की तरह लाभ दिला सकेंगे तो उनका कहना था हम चाय बेचने  वाले  लोग हैं प्रयास कर रहे हैं।
क्या किसानों की आय दोगुनी करने का पीएम का वाद वैसा ही तो नहीं है, जैसा स्विस बैंक से काला धान स्वदेश लाकर  हर भारतीय की जेब में 15 डाल देने और दो करोड़ युवाओं को हर साल रोजगार देने आदि का था। दरअसल सरकारों को अब सत्ता के  लिए 25, 50 साल पुराने सियासी दांवपेंजों से उबर कर 2018 के हाईटेक युग की तरह अपनी सोच, नीति औैर नीयत विकसित करने की जरुरत है।
हाथी दांत की तरह छिटपुट वोटबैंक उपलब्धी के ऐलानिया जंग से उबर कर हकीकत में ऐसे चमत्कार के कामों और प्रयासों की मर्दानगी दिखाने की दरकार जिससे देश के पेट की आग को  बुझाने वाले किसानों की तकदीर और तस्वीर बदले। यदि वे सौ पचास रुपए बीमा, पांच दस हजार बोनस व समर्थन मूल्य, दस बीस हजार कर्ज माफी, फोकट में चावल बांट कर श्रेय की सियासत का सिलसिला जारी रखेंगी तो जनता उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेक देगी।
इतिहास बखान करने की बजाए इतिहास में नाम तर्ज होने में उनकी इच्छाशक्ति दिखना चाहिए। उद्योग व कार्पोरेटरों बढ़ावा देने की बजाए किसानों को अति महत्व और कृषि को उद्योग का दर्जा देने से आगे बढ़कर सोचने से ही देश की तदबीर बदलेगी।
कांक्रीट के जंगल की बजाए फसलों का रकबा घटने के बदले बढ़ाने में उन्हें अपनी ऊर्जा खर्च करना चाहिए। किसानों की सुविनधाएं और सिंचाई, बीज, खाद कृषि संसाधनों की पर्याप्ता के साथ प्रक्रिया में सुविधा उन्हें मिलेगी तो उनके साथ पूरा देश खुशहाल होगा। क्योंकि राज्य ही नहीं बल्कि देश के 75 फीसदी लोग आज भी खेती पर निर्भर हैं।

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