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इस्तीफे की राजनीति

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अशोक मिश्र
असहमति का अधिकार सुरक्षित हैं।
2019 के लोकसभा के चुनाव ने देश को इस्तीफे के विमर्श में डाल दिया हैं। अभी तक किसी भी राजनीतिक दल के मुखिया ने राजनीतिक परिपक्वता नहीं दिखायी।चुनाव हारना व जीतना राजनीति का हिस्सा हैं।
अगर हार का इतना ही डर हैं तो राजनीति में आना ही नहीं चाहिए। 2019 चुनाव ने लगभग बिपक्ष ख़त्म कर दिया हैं जो अच्छा संकेत नहीं हैं। विपक्षी पार्टियों की समस्या ये हैं कि ज्यादातर को देश का कोई परिवार चलाता हैं।
बात उत्तरप्रदेश से शुरू करता हूँ। उत्तर प्रदेश में प्रमुख छेत्रीय पार्टियों में सपा, बसपा, रालोद, राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस व भाजपा हैं। भाजपा को छोड़ दे तो बाकी पार्टियों की कमान किसी विशेष परिवार के हाँथ में हैं नतीजे के तौर पर चारण परंपरा का जन्म होता हैं।
चापलूसों के आदी हो चुके नेता प्रतिभा के बजाय चापलूसों को बरीयता देते हैं कारण स्वरुप प्रतिभाशाली व्यक्ति राजनीति को अछूत मानते हैं।
प्रदेश के सारे बड़े अपराधी प्रत्यछ व परोक्ष रूप से राजनीति में रसूख रखते हैं ऐसे में किसी भले आदमी के लिए राजनीति में कितना स्पेस हैं इसका उत्तर ढूंढना बाकी हैं।
बजाय इस्तीफ़ा, इस्तीफ़ा खेलने के अगर राहुल, अखिलेश हार की गहन समीक्षा करते तो अब तक किसी नतीजे पर पहुँचते। अच्छा होता की राहुल इस समय अमेठी में होते।
टूटे मनोबल के कार्य कर्ताओं से दलबदल का संकट पैदा होता हैं जिसका ताज़ा उदहारण पश्चिम बंगाल हैं। इस समय राजनीति नेताओं की कमी से जूझ रही हैं खासकर विपक्षी पार्टियां।
अल्पेश का कांग्रेस से अलग होना इस बात का रुझान हैं कि युवा कांग्रेस के तरफ नहीं आना चाहता। बचे कांग्रेस के बरिष्ठ नेता जो अब असरहीन हो चुके हैं। अब कांग्रेस को बचाने की जिम्मेदारी राहुल, प्रियंका, व। जमीनी कार्यकर्ताओं की हैं।
आने वाले दिनों में राहुल की मुसीबतें और बढ़ेगी रॉबर्ट वाड्रा व नेशनल हेराल्ड मामले में तेज़ी आएगी। अब राहुल गांधी व कांग्रेस दोनों की जरूरत राहुल गांधी ही हैं।
गैर यादव ओबीसी के भाजपा में जाने से सपा बसपा दोनों कमजोर हुई हैं। सपा बसपा का भविष्य 2022 के विधानसभा के चुनाव पर निर्भर करेगा।

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