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आखिर बिहार के 138 नौनिहाल बच्चों की मौत का जिम्मेदार कौन ?

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नरेश दीक्षित

बिहार में पिछले 17 दिनों में 138 नौनिहाल बच्चों की एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (दिमागी बुखार) से दवाइयों के अभाव में असमय मृत्यु हो गई। इसका कहर अब भी जारी है बिहार के 12 जिले इस बीमारी की चपेट में है और सैकड़ों बच्चे अब भी जिन्दगी मौत से लड़ रहे हैं। बिहार में बच्चों की मौतों का आंकड़ा जितनी तेजी से बढ़ा है इसे राज्य सरकार की लापरवाही के साथ ही केंद्र सरकार को भी जुम्मेदार माना जाना चाहिए।
मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कालेज में डाक्टरों की एवं ब्यवस्थाओ की भारी कमी के कारण बच्चो की मृत्यु हुई है। याद कीजिए 1953 में फिल्म बूट पॉलिश का गीत “नन्हे-मुन्ने तेरी मुट्ठी में क्या है ,मुट्ठी में है तकदीर हमारी- आने वाले दुनिया में सब के सर पर ताज होगा, न भूखों की भीड़ होगी न दुखों का राज होगा- बदलेगा जमाना ये सितारों पर लिखा है।” लेकिन बदला क्या?
क्योकि उस को गाते नन्हे-मुन्नों की उम्र आज 75 पार होगी तो आजादी के 70 साल बाद क्या वाकई तब के नन्हे मुन्नों ने जिस दुनिया के सपने पाले वह क्या आज की दुनिया दे पा रही हैं? ये सब सपना है क्योकि मौत-दर-मौत ही बच्चों का सच हो चला है। 2017 में गोरखपुर के बी आर डी मेडिकल कॉलेज में 60 बच्चों का नरसंहार तो एक बानगी भर थी क्योकि बच्चों के जीने के लिये हमने आप ने छोड़ी कहा है दुनिया।
हालात कितने बदतर है, तस्वीर खौफनाक है आकड़े डराने वाले है। 730000 शिशु जन्म लेते ही महीने के भीतर मर जाते हैं। 1050000 बच्चे एक साल की उम्र भी नही जी पाते हैं। यानी एक तरफ़ इलाज की व्यवस्था नहीं तो बच्चो की मौत और दूसरी तरफ प्रदूषण। प्रदूषण से 5 बरस तक के 291288 बच्चे हर बरस मरते हैं। 14 बरस के 431560 बच्चो की मौत हर बरस होती हैं।
गोरखपुर में आक्सीजन सप्लाई रूकी तो 60 बच्चों की और बिहार में इंसेफेलाइटिस से 138 बच्चों अकाल मौत से हर किसी का ध्यान केंद्रित कर दिया, लेकिन 2016 में ही निमोनिया-डायरिया से 296279 बच्चो की मौत विश्व स्वास्थय संगठन के आंकड़े में सिमट कर रह गई। तो फिर बच्चों पर किसी का ध्यान कहां है? क्योकि दुनिया में भूखे बच्चो की तादाद में भारत का नम्बर 97वां है।
तो देश में विकास की कौन सी रेखा खींची जा रही है और किसके लिये? कहीं एम्बुलेंस की कमी से मरते लोग तो कहीं शव को अपने कंधे पर ढ़ोता बाप ये तस्वीरें रोज का हिस्सा हो गई है। दरअसल सच यह है कि स्वास्थ्य सेवा की कभी किसी सरकार की प्राथमिकता में रहा ही नहीं। आलम यह हैं कि 27 फीसदी मौत के पीछे समय से इलाज न मिलना है।
देश में एक तरफ़ सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था खुद ही आईसीयू में है और दुसरी तरफ मैडिकल बीमा के जरिए प्राइवेट बीमा पर इलाज करा पाने की स्थित सिर्फ पैसे वालों की है जबकि 86 प्रतिशत ग्रामीण और 82 प्रतिशत शहरी आवादी के पास मेडिकल बीमा नहीं है। देश का दर्दनाक और चिंताजनक मंजर यह है कि 1700 मरीजों पर एक डाक्टर है । 61011हजार लोगों पर एक अस्पताल है। 1833 मरीजों के लिए एक बेड उपलब्ध है।
यानी अस्पताल, डाक्टर, दवाई, बेड,आक्सीजन सभी कुछ हालात त्रासदी दायक है तो फिर सरकार स्वास्थ्य पर खच॔ क्यो नही करती? फिलहाल भारत स्वास्थय पर जीडीपी का सिर्फ 1.4 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि अमेरिका में 8.3 प्रतिशत और दुनिया के 188 देशों की रैंकिंग में भारत का नम्बर 143वां आता है। और देश का सच है कि यहाँ के 30 करोड़ लोग लाख चाहने पर भी दवाइयां खरीद नहीं सकते।
दरअसल भारत में बचपन खतरे में है और इस पर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। ” सेव द चिल्ड्रेन की रिपोर्ट कहती है कि भारत में बचपन खतरे में है। स्वास्थय, शिक्षा, मजदूरी, शादी, जन्म हिंसा जैसे 8 पैमाने पर “सेव द चिल्ड्रेन” की सूची में म्यांमार,भूटान ,श्रीलंका और मालदीव से भी पीछे 116वें स्थान पर है।
आजादी के 70 साल बहुत होते हैं सपना पूरा करने के लिए लेकिन नन्हे -मुन्ने बच्चों के सपने रोज टूट रहे हैं और देश के भविष्य को मौत के मुंह में धकेला जा रहा है और सत्ता संभालने वाले मन की बात मुसकुराते हुए कर रहे हैं। बिहार की त्रासदी को कोई देखने वाला नहीं है केंद्र और राज्य एक-दुसरे को दोषा रोपित कर रहे हैं।

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