नरेश दीक्षित
एक जेट एयरवेज में काम करने वाले मित्र के यहाँ कभी-कभी जाता था। जब भी उनके घर जाता, खूब बातचीत होती और मैं बातचीत में कहता की जेम्स प्रौधन ने कहा कि ‘पूँजी कुछ भी नहीं बस चोरी है’ तो वह मन भर मुझे कोसते। मार्क्स का नाम लेते ही मुझे लगता कि वे नाश्ते की प्लेट छीन लेंगे।
शायद तब यह सोचते थे कि जेएनयू में पढने वाले यू ही पूँजी वाद के खिलाफ होते है। वे हमारे संघर्षों का मजाक भी उड़ा देते थे। कहते कि जे एन यू वालों की यूनिवर्सिटी को जंतर- मंतर पर शिफ्ट कर देना चाहिए। तब उन्हे शायद यह भान भी नहीं था कि एक दिन वो खुद जंतर-मंतर की सड़क पर संघर्ष कर रहे होंगे।
आज वह रो रहे है, विलख रहे हैं, गुहार लगा रहे है, सरकार से अपील कर रहे हैं। जब मैं सरकार की जिम्मेदारी की बात करता था तो वे भड़क जाते थे। वे कहते सरकार की क्या जरूरत है? लेकिन आज जब उनको देख रहा हूँ कि उनके बच्चे भी स्कूल जाने से महरूम होने वाले हैं वे कह रहे है कि हम भूखे मर जायेंगे, तो दुःखी हूँ।
लेकिन असल दुख इस बात का है कि वे तब हमारे संघर्ष को सिरे से नकार देते थे। तब हम एयर इंडिया की बात करते तो क्रोधित हो जाते, कहते कि यह घाटे में है तो बन्द हो ही जाना चाहिए।