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धार्मिक आधार पर नागरिकता संशोधन विधेयक आखिर मोदी सरकार क्यों पास करना चाहती हैं?

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नरेश दीक्षित

24 मार्च 1971 की आधी रात से पहले वे या उनके परिवार के जो लोग भारत में रहते थे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक 31 जुलाई 2019 को एनआरसी की आखिरी सूची प्रकाशित होनी है। (पोस्ट लिखें जाने तक सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समय सीमा अगस्त तक बढ़ा दी है) केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने राज्य सभा में बताया है कि करीब 25 लाख लोगों की शिकायत और आपत्तियाँ सरकार को मिली है।
इनके मुताबिक काफी भारतीयों के नाम इस सूची में छूट गए है और कई ऐसे नाम शामिल हो गए हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे विदेशी है। इन सभी आपत्तियों को सुनने और ठीक करने के बाद भी यदि 30-40 लाख़ लोग विदेशी ठहराए जातें है तो क्या भारत सरकार उन सबको देश से निकाल देगी? क्या ऐसा कर पाना संभव है? भारत क्या दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं कर सकता।
भाजपा इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति कर रही हैं। अब तो मामला सिर्फ असम का नहीं है। अब तो अमित शाह ने देश की इंच -इंच जमीन खाली कराने की बात कही है। इंच -इंच जमीन खाली कराने का जुमला बंगाल की राजनीति को ध्यान में रख कर उछाला गया है। पूरे उत्तर पूर्व को सैंनीयकृत किया जा रहा है तथा आर एस एस की अगुवाई में जारी खुली साम्प्रदायिकता के समर्थन से राज्य द्वारा किए जा रहे आफसपा जैसे काले कानूनों के अंधाधुंध प्रयोग की वजह से मणिपुर, नागालैण्ड, मिजोरम और असम में हालत पहले से ज्यादा बदतर हो गए है।
मुख्यतः हिन्दू प्रवासियों के पक्ष में, और मुस्लिमों को पुरी तरह निशाना बनाते हुए नागरिकता कानून में संशोधन का प्रयास तथा इसके अनुरूप असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीयन के साथ छेड़छाड़ की, ने साम्प्रदायिक रूप से उत्तेजनापूण॔ और ध्रुवीकृत माहौल पैदा कर दिया है। तृणमूल कांग्रेस की सरकार द्वारा अपनाएं गए तरीके और भाजपा द्वारा हस्तक्षेप की वजह से गोरखा जनता का नृजातीय सवाल और बदतर हो गया है।
असम, मणिपुर, मेघालय और बंगाल की जनता नागरिकता संशोधन विधेयक लोक सभा में पारित किए जाने का पहले से ही विरोध कर रही हैं। जबकि इसे अभी राज्य सभा में पारित होना बाकी है। इस विधेयक के जरिये मोदी सरकार सम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करना चाहती हैं। इस विधेयक से बंगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध,पारसी, ईसाई सम्प्रदाय के प्रवासियों को भारत की नागरिकता देने का प्राविधान किया गया है।
सवाल यह उठता है कि जब इन सबको नागरिकता दी जा सकती है तो मुस्लिमों को क्यों नहीं? धार्मिक आधार पर भेदभाव क्यों? यह साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण नहीं है तो क्या है? जो लोग बांगलादेश से उत्तर-पूर्वी राज्यों से आए हैं उनमें करीब आधे हिन्दू है और बाकी मुसलमान। मोदी सरकार हिन्दूओं को नागरिकता देना चाहती हैं, मगर मुस्लिमों को नहीं जिससे ऐसी स्थिति पैदा होगी कि लाखों लोग राज्य विहीन हो जायेगें।
असल में राज्य सरकारों और उत्तर-पूर्वी राज्यों व बंगाल के राजनैतिक प्रतिनिधियों के साथ बात चीत कर इन प्रवासियों की समस्या का राजनैतिक समाधान करने के बजाय केंद्र की मोदी सरकार और असम की भाजपा सरकार द्वारा मुद्दे को साम्प्रदायिक विभाजन के हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं और पूरे अंचल को अशांत किया जा रहा है। कुल मिलाकर मोदी राज में देश के संघीय ढांचे पर भारी खतरा मंडरा रहा है।

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