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विवेक का आनंद है संस्कृति

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हृदयनारायण दीक्षित

संस्कृति विवेक का आनंद है। भाषा की दृष्टि से संस्कृति शब्द संस्कृत का विकास है। संस्कृत का अर्थ है परिष्कृत किया हुआ। विवेकपूर्ण ढंग से प्रिय बनाया हुआ आदि।
इसी तरह संस्कृति संस्कारित परिष्कृत चिन्तन और सामूहिक उल्लास की अनुभूति है। संस्कृति की तरह संस्कृत भी भाषा के विकास में कई चरणों से गुजरी है।
भाषा ही संस्कृति की यात्रा का मुख्य उपकरण है। यहां भाषा वाहन है और संस्कृति उसकी संपदा। संस्कृति निर्माण के तमाम तत्व होते हैं पर भाषा संस्कृति निर्माण का सबसे बड़ा तत्व है।
सृष्टि के सभी प्राणी भाषा बोली के जरिए आपस में सम्वाद करते हैं लेकिन मानव समाज में अपनी बोली को व्यवस्था और अनुशासन देकर सुगढ़ भाषा बनाने की प्रवृत्ति है।
सृष्टि के सभी प्राणियों में भाव होता है। डार्विन के अनुसार, ‘‘सभी प्राणियों को आश्चर्य की अनुभूति होती है।’’ आश्चर्य से उत्सुकता बढ़ती है।
डार्विन ने इसे इण्टलैक्चुअल इमोशंस – जिज्ञासा भाव कहा है। भाव और बुद्धि के प्रकट करने का एक सशक्त माध्यम भाषा है। मनुष्य के सामूहिक जीवन की अनिवार्यता है भाषा।
संस्कृत में विपुल साहित्य सृजन हुआ। इस साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्क प्रमाण आधारित दर्शन से मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य व समाज के मध्य एकात्म अनुभूति का विकास हुआ।
पूर्वज ऋषियों व दार्शनिकों ने समूचे ब्रह्माण्ड को एक इकाई देखा। ऋग्वेद से लेकर महाकाव्यों तक उदात्त दृष्टि व विचार का प्रवाह है। यहां कीट पतिंग व वनस्पतियां भी आदर की पात्र रही हैं। भारतीय संस्कृति का विकास एक सतत् संगीत प्रवाह है।
यहां सतत् शोध और बोध का वातायन रहा है। शोध और बोध की कार्रवाई में प्रश्न प्रतिप्रश्न और तर्क की महत्ता रही है। देव आस्थाओं पर भी तर्क हुए हैं।
आस्था से भी संवाद की परंपरा ने भारतीय संस्कृति को उदात्त और लोकतंत्री बनाया है। विश्व को एक परिवार जानने की अंतर्राष्ट्रीय उद्घोषणा भारतीय संस्कृति की मुख्य अनुभूति है। इसी आधार पर गठित भारतीय राष्ट्रभाव और अन्तर्राष्ट्रीयता में कोई द्वन्द्व नहीं है।
अकेले होना अवसादकारी है। सामूहिकता में आत्मरक्षा की आश्वस्ति भी है। ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में ‘साथ साथ चलने, साथ साथ वार्ता करने की स्तुतियां हैं। इस मंत्र में ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले की भी संस्कृति का उल्लेख है “यथा पूर्वे संजानाना उपासते।
संस्कृति ही इकाई को सामूहिक और सामाजिक बनाती है। सामाजिकता के तत्व में रस उड़ेलती है। संस्कृति का शाब्दिक अनुवाद होगा सम्यक कृति। संस्कृति शब्द संस्कृत से आया। संस्कार शब्द संस्कृति का भाई है।
संस्कार का मतलब है शुद्धि की प्रक्रिया।  शुद्धि का अर्थ निजी भी है। सामाजिक भी। संस्कृति के कारण ही भारतीय समाज की गति आनंदमय एकात्मवाद की ओर उन्मुख है।
संस्कृत में सम् (उत्तम) उपसर्ग, पूर्वक “कृञ” धातु से क्तिन प्रत्यय होने पर यह शब्द बनता है।  इसका अर्थ है उत्तम कृति।  यह अंग्रेजी शब्द कल्चर का अनुवाद नहीं है।  कलचर कल्ट शब्द का परिवारी है।  कल्ट का मतलब (शैली) होता है।
अंग्रेजी भाषा के कल्चर में संस्कृति के सभी तत्व समाहित नहीं हैं। यों संस्कृति का अंग्रेजी अनुवाद कल्चर ही किया जाता है। कल्चर वाह्य आचरण होता है और संस्कृति सत्य और शिव सुन्दर से भरापूरा अंतःकरण है। यही बाहर प्रकट होकर सभ्यता के भिन्न भिन्न आयामों और रूपों में प्रकट होता है।
प्रकृति में करोड़ो रूप और जीव हैं। लेकिन प्रकृति का हरेक घटक परस्परावलम्बन में है। यह सम्यक कृति है। यह इंटेलीजेंट डिजाइन – सम्यक बुद्धि युक्ति से गढ़ी गई रचना है। यह सदा से है सदा रहती है। सो सत्य है।
यह हम सबके सुख स्वस्ति और कल्याण का क्षेत्र है – सो शिव हैं। इसके रूप हम सबके अंतःकरण में सुख और आनंद के संवेदन जगाते हैं। इसलिए यह सुंदर है। प्रकृति में सत्य, शिव और सुन्दर एक साथ हैं।
हम मनुष्य इसी प्रकृतित्रयी का अंश हैं। हम सब भी सत्य, शिव और सुंदर का भाग हैं। हम शेष प्राणियों की तुलना में मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ मानते हैं। प्रकृति हमारा कर्मक्षेत्र है।
अपने कर्म तप से इसमें और अधिक शिवत्व भरना हमारा कर्त्तव्य है। इसे अतिरिक्त सुंदर बनाना हमारा सामूहिक स्वार्थ भी है। प्रकृति को हरेक दृष्टि से आनंदवर्द्धन बनाना संस्कृति है।
भारतीय इतिहास के अतिप्राचीन काल से हमारे पूर्वज प्रकृति के प्रति स्वयं का संस्कार करते रहे हैं। भारतीय संस्कृति के जन्म और विकास का श्रेय वैदिक पूर्वजों को दिया जाना ही उचित है। ऋग्वेद का काव्य संस्कृति के उदात्त तत्वों से भरापूरा है।
वैदिक पूर्वज प्रकृति में सौन्दर्य की अनुभूति करते थे। वे स्वयं उससे प्रेरित होते थे और अपने लिए भी वैसी ही कर्मसाधना के प्रतीक रचते थे। मनुष्य पर्यावरण से जुड़ा रहता है। वह उसे जानना चाहता है।
वह प्रकृति का भाग है। प्रकृति में उसकी रूचि हैं प्रकृति के रूप मनभावन है। स्वाभाविक ही उसकी रूचि सुरूचि है। ऋग्वेद की ऋचाएं ऋषि- उक्त (कथन) हैं लेकिन वे सु-उक्त-सूक्त हैं। (2.23.19) वे सुंदर है इसलिए सूक्त है।
वाणी मधुर वाणी सुन्दर है इसलिए ‘सुवाचः’ है। अग्नि वैदिक पूर्वजों के बड़े देवता है। ऋग्वेद के अग्नि कवि भी हैं। वे सुंदर है इसलिए उन्हें ‘सुअग्नयः’ कहा गया है और ‘सुमेधा’ भी। यहां ‘सुमेधा’ सुन्दर बुद्धि है।
प्रकृति में मनुष्य की रूचि है। सुन्दर देखते समय यही सुरूचि है। प्रकृति की शक्तियां रूचिपूर्ण हैं, सु लगाने से वे सुरूचिपूर्ण हो जाती हैं। यज्ञ अग्नि में डाली जाने वाली हवि भी ‘सुहर्व्य’ (1.74.5) है। बुद्धि मति है लेकिन ऋग्वेद में ‘सुमति’ भी है। सूर्योदय के समय की आभा ऊषा है, देखने में सुंदर लगती है।
सो सुदृशी है। (1.122.2) मनुष्य अनादिकाल से सुन्दरता का अभिलाषी है। सुन्दरता देखने और अनुभव करने का विषय है। देखे हुए दृश्य का चित्र बनाया जा सकता है, वर्णन हो सकता है।
लेकिन स्वाद का चित्र नहीं बन सकता, बेशक शाब्दिक वर्णन हो सकता है वह भी गायन से। ऋषि स्वाद के पहले सुस्वाद लगाते हैं। लेकिन सुस्वाद में उनका सबसे पुराना परिचित पदार्थ है मधु। ऋग्वेद का काव्य मधुरस से डूबा हुआ है।
ऋग्वैदिक ऋषियों ने हजारों बरस पहले इस मक्खी की ध्वनि को गीत कहा और मक्खी का नाम रखा मधुमक्खी। फिर जहां जहां सुस्वाद रस टपका उन्हें मजा आया, वहां-वहां वह मधु हो गया।
भारतीय संस्कृति विज्ञान और दर्शन की सु-रति है। यहां आस्था की कोई गुंजाइश नहीं। रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श जैसी सहज इन्द्रियबोध चेतना ने ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ वातावरण गढ़ा और इसी का नाम पड़ा संस्कृति।
भाषा में कहें तो संस्कृत, कर्म में कहें तो सुसंस्कृत, कर्म फल में कहें तो संस्कृति। भारत के मन, बुद्धि, विवेक और प्रज्ञा का सुकर्म फल संस्कृति है।
संस्कृति अंतःकरण का संगीत है। मनुष्य को सामाजिक इकाई या प्राणी मानकर सामाजिक बनाने का काम ही सांस्कृतिक नहीं कहलाया। वैदिक ऋषियों ने धरती को माता जानने और मानने की घोषणा की।
सृष्टि के कण-कण में परस्परावलम्बन देखा।  सब जन (और कण-कण भी) एक ही विराट परमतत्व की अभिव्यक्ति जाने गये।  सो भारत में ज्ञानी की परिभाषा बनी “आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सा पंडितः”।
सभी तत्वों प्राणियों में अपनी ही आत्मा देखने वाला ज्ञानी कहलाया।  इसी प्रकार की तमाम प्रतीतियों और अनुभूतियों का संस्कार “संस्कृति” कहा गया।
सामूहिक आत्मपरिष्कार की सतत् प्रवाही गतिविधि ही भारत में संस्कृति कहलाई।  भारत ने ऐसे आत्मपरिष्कार के लिए नित्य नए बोध और नित्य नए प्रबोध की भी परम्परा चलाई। भारत ने इतिहास और भूगोल की संकीर्ण सीमाएं नहीं मानी।
पंथ, मत, मजहब की भी नहीं।  ऋग्वेद का ऋषि भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में ज्ञान की प्रार्थना करता है “आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” (सभी दिशाओं से उत्तम ज्ञान मेरे ऊपर प्रवाहित करो) ज्ञान कहीं से आता है।
किसी भी दिशा से आता है। भारत ने उसे माथा टेका।  राष्ट्र की यही चित्तदशा संस्कृति कहलाई।  यजुर्वेद के ऋषि ने गाया “सा प्रथमा संस्कृति-विश्ववारा” यानी यह संस्कृति (सब तरफ से ज्ञान अभीप्सु) विश्ववरणीय है।  भारत भूमि की यह प्रतीति सारी दुनिया के लिए अनुकरणीय है।

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