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भारत की चुनाव प्रणाली में परिवर्तन बगैर प्रजातंत्र अधूरा!

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नरेश दीक्षित (संपादक समर विचार)


भारत में पहला आम चुनाव आजादी मिलने के बाद 1952 में हुआ था। तब से भारत में जिस चुनाव प्रणाली का अनुसरण किया जा रहा है, उसके तहत सभी प्रत्याशियों में जो पहले स्थान पर होता है वह विजयी होता है, चाहे कुल वोटो में उसका प्रतिशत कितना भी क्यों न हो। इस लिए 1952 के प्रथम लोक सभा चुनाव के समय से अब तक कोई ऐसी सरकार नही बनी है जिसे 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिला हो।

अब तो और भी कम प्रतिशत वोटो से सरकार बनने लगी है, इस लिए यह जरूरी हो गया है कि पहले स्थान पर आने वाले को विजयी घोषित करने की मौजूदा प्रणाली की जगह अनुपातिक प्रणाली की आवाज उठाई जाये, जो ऐसा विश्व के कई देशो में होता है जहां पूजी वादी लोक तंत्र है। यहां तक हमारे पडोसी देश नेपाल में नये संविधान के तहत चुनाव के साथ साथ अनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली को अपनाया गया है।
हालांकि संविधान में भारत को धर्म निरपेक्ष कहा गया है और जाति प्रथा को प्रतिगामी बताया गया है, मगर प्रथम आम चुनाव से ही प्रमुख पार्टियों द्वारा अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए साम्प्रदायिक और जाति वादी तुष्टिकरण का सहारा लिया जाता है। धर्म को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने वाली पार्टियों को भी चुनाव में भाग लेने दिया गया, जिसमें अल्पसंख्यको की साम्प्रदायिक पार्टियां भी शामिल रही है।
अब भाजपा द्वारा भारत को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने के लिए बहुसंख्यक हिन्दुत्ववादी राजनीति का खुला इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके चलते समाज में ध्रुवीकरण तेज हो रहा है। इन प्रवृत्तियों के कारण जो भी लोकतांत्रिक मूल्य बचे हुए है वे खत्म होते जा रहे है। अतः साम्प्रदायिक और जातिवाद के आधार वोट बैंक बनाने और चुनाव प्रचार पर लगाम लगाने के लिए कड़े नियम बनाने और उस पर अमल करने की जरूरत है।
अगर इस तरह से बदलाव नही किए गए तो मौजूदा चुनाव प्रणाली एक तो साम्प्रदायिक और जातिवाद को खाद पानी देती रहेगी, दुसरी तरफ कार्पोरेट राज की सेवा करते हुए ज्यादा जन विरोधी होती जायेगी। अतः भारत की चुनाव प्रणाली को और अधिक प्रजातांत्रिक बनाने के लिए सभी जनवादी ताकतो को एक जुट होकर आवाज बुलंद करना चाहिए अन्यथा वर्तमान चुनाव प्रणाली से 100 में बीस -पच्चीस प्रतिशत वोट पाने वाला 75 प्रतिशत पर मन माना शासन करता रहेगा।

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