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देश के वामपंथी दल पालकी ढोने वाले बन कर रह गए?

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नरेश दीक्षित (संपादक समर विचार)

वामपंथी दल देश की आजादी के बाद अपनी छवि नही बचा पाए है, जिसमें उन्हे सत्ता का सबसे प्रतिबद्ध वैचारिक प्रतिपक्ष माना जाता था। अब ये परिस्थितियों के नाम पर कभी तो इस तो कभी उस बड़ी पार्टी की पालकी ढोने वाले की भूमिका में दिखने लगे है।
और तो और हिन्दी भाषी प्रदेशो में उनकी उपस्थिति भी क्यो मुश्किल होती जा रही है जिसकी जमीन को वे एक समय अपने लिए बेहद अनुकूल मानते थे? क्योंकि पश्चिम बंगाल का गढ़ ढहने के बाद से ही यह उम्मीद भी ना उम्मीद होती चली जा रही है कि गढ खो देने के बाद देश व्यापी विस्तार के लिए खुल कर खेलने का मन बनाते? यह विस्तार उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न होना चाहिए था लेकिन इसमें भी चूक गए।
वाम के नेताओं के लिए सवालों के जवाब इस लिए भी कठिन हो चले है कि वे राजनीति मे उतरे तो अपनी क्रांति कामना के लिए मगर समय के साथ खुद उसके हाथों इस्तेमाल होकर रह गए है। इतना ही नही आजादी के बाद विकसित अपनी वह छवि भी बचा न पाए है जिसमे उन्हे न सिर्फ लम्बे समय तक सत्तारूढ रही कांग्रेस बल्कि सारी मध्यवर्गी दलो का सबसे प्रतिबद्ध वैचारिक प्रतिपक्ष माना जाता था।
महात्मा गांधी, बाबा साहब अंबेडकर, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह जैसे उस संघर्ष के नायकों के मूल्यांकन में भी बहुत देरी की। आजादी के बाद माकपा को ज्योति बसु के रूप में देश को पहला वामपंथी प्रधानमंत्री बनने का अवसर हाथ लगा तो उसने साफ इंकार कर दिया। तब वाम दलो के विरोधियो व शुभचिंतको दोनो को कहना पड़ा कि अब वामदलो की ट्रेन छूट गई है।
ज्योति बसु को भी बाद में इसे हिमालय जैसी भूल बताना पड़ा था, वामपंथी ऐसी भूले नही करते तो आज प्रायः सारी मध्यवर्गी पार्टियों से निराश देश उन्हे खासी उम्मीद के साथ निहारता। वे कह पाने की स्थिती में होते कि अब हमारी बारी है । लेकिन अभी तो वे अपने विरोधियो की लगातार बढ़ती जा रही घृणा के साथ अपने गढों तक में जनता का कोप झेल रहे है त्रिपुरा इसका ताजा उदाहरण है फिर भी अपने अंतर्विरोध नही सुलझा पा रहे है।
दुसरी ओर कई वामपंथी पार्टियों के नेता उतने भी प्रतिबद्ध नही रह गए है, जितने कभी पार्टी के साधारण कार्यकर्ता हुआ करते थे। यहाँ अभी भी बहसे जारी है कि भाजपा को अधिनायक वादी माना जाये या फासीवादी और उससे लड़ने के लिए कांग्रेस से कैसे मिला भी जाये या नही। येचुरी इसे जरूरी बताते है तो प्रकास करात बेवकूफी। क्या अर्थ है इसका? यही तो कि एक ओर देश में आग लगी हुई है और दुसरी ओर इस बौद्धिक विमर्श में उलझे है कि उसे बुझाने के लिए कुआं कहां खोदा जाये।
लगभग एक साथ सक्रिय होने वाले दो जमाते (संघ व वाम) एक ने कहा था कि राजनीति से दूर रह कर सिफ॔ संस्कृति के ही क्षेत्र में काम करेगी, उसने काम करते करते अपनी राजनीतिक फ्रंट की मार्फत लगभग सम्पूर्ण देश की राजनीति पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है, और अपने को वाम कहने और संस्कृति के क्षेत्र में काम से परहेज कर चौबीसों घंटे जनता एवं सर्वहारा वर्ग की राजनीति करने वाले हाशिये पर चले जा रहे है। जो दलित व पिछड़े कभी उनके आधार थे वह निराश होकर कहने लगे है कि वामपंथी दल क्रांति करने के लिए नही क्रांति रोकने के लिए प्रतिबद्ध है?

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