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रूपए का अवमूल्यन निरंतर जारी रहने से आम जनता महंगाई से परेशान होगी!

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नरेश दीक्षित (संपादक समर विचार)

एक समय था जब मुद्रा का गिरना भारत में तीखी राजनैतिक बहसो का विषय बन जाया करती थी। जून 1966 में जब इंदिरा गाँधी सरकार ने अमेरिका के प्रभाव में रूपए के मूल्य को कम किया था तब अमेरिकी एक डालर की कीमत 4,75 से बढ कर 7,50 रूपए हो गई थी तो संसदीय विपक्ष ने इसे भारत से ‘बलात्कार’ कहा था।
1947 में सत्ता हस्तांतरण के समय एक भारतीय रूपए का मूल्य करीब -करीब एक अमेरिकी डालर के बराबर था । लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था का विदेशी बाजार की ओर चरम झुकाव, बड़े पैमाने पर क॔ज लेने की वजह से ऐसा अभाव पैदा हो गया जिसका प्रबंधन कठिन था। हालांकि उस समय तक निश्चित विनिमय प्रणाली कायम थी।
आज इतिहास में पहली बार मोदी सरकार के तहत जो अमेरिका एवं अन्य पूंजी वादी राष्ट्रो के निर्देश पर लचकदार विनिमय प्रणाली का अनुसरण कर रहे है और साथ ही देश को टिकाये रखने के लिए विदेशी बाजार पर पूरी तरह निर्भर है, इस पर यह अनुमान लाजमी लगता है कि 2018 के अन्त तक भारतीय रूपए का मूल्य कम होकर 80 रूपए प्रति डालर तक पहुँचने की संभावना प्रबल होती जा रही है।
न्यूयार्क शेयर बाजार, बैंक ऑफ अमेरिका, जर्मन बैंक, यस बैंक, डी बी एस (सिंगापुर विकास बैंक) सहित लगभग सभी पूंजी पति राष्ट्रो के वित्तीय श्रोत यह भविष्यवाणी कर रहे है कि भारतीय मुद्रा 70 रूपए डालर या उससे अधिक की रेखा को पार कर सकती है।
स्वाभाविक है कि जब रूपए का जितना अवमूल्यन होगा, अमेरिकी डालर उतना ही मजबूत होगा। इसका फौरी और नजर आने वाला परिणाम यह है कि डालर एवं अन्य विदेशी मुद्राओं को हासिल करने के लिए पागल दौड शुरू हो जायेगी और भारत के चालू खाते का घाटा अभूतपूर्व रूप से बढ जायेगा। बेशक इसका सबसे बड़ा लाभ अमेरिकी साम्राज्यवाद को होगा।
आज रूपए और डालर के विनिमय दर में लगातार वृद्धि कर तथा डालर के मूल्य को ऊंचे स्तर पर रख कर अमेरिका जैसे साम्राज्य वादी देश व्यवस्थित ढंग से भारत का खून निचोड़ रहे है और इस कार्य में भारतीय दलाल शासक वर्ग उनका सहयोग कर रहा है।
देश की मुद्रा का अवमूल्यन जनता के शोषण और देश के संसाधनो की लूट का एक निष्ठुर और खूनी तरीका है। मुख्य धारा के संसदीय दलो के बीच अतीत के विपरीत, इस राजनैतिक समझ का घोर अभाव है या कहे कि वे इस गंभीर मुद्दे पर परदा डालने का प्रयास कर रहे है?

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