नरेश दीक्षित
देश में सर्व शिक्षा अधिकार कानून लागू हुए 8 वर्ष बीत गए है। विवादों में लिपटा यह कानून शिक्षा का मौलिक अधिकार नहीं देता वरन छीन रहा है। शिक्षा में गैर बराबरी बढ़ा रही है और गरीब बच्चो को अधकचरी शिक्षा दे रहा है। कथित शिक्षा अधिकार कानून सरकारी और निजी स्कूलों के शिक्षकों के बीच भेदभाव को बढ़ावा दे रहा है और सरकारी खजाने के सहारे स्कूली शिक्षा के निजी करण और बाजारी करण के नए दरवाजे बड़ी होशियारी से खोले जा रहे हैं।
देश की शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए गठित कोठारी आयोग ने कहा था कि प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक उम्दा गुणवत्ता की शिक्षा देने के लिए जरूरी है कि देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाए। लेकिन विश्व भूमणडलीय करण के तहत 1991से आथिक॔ नीति के चलते लगातार 25 सालों से सकल राष्ट्रीय उत्पाद के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर लगातार खच॔ घटाया जा रहा है।
नई आर्थिक नीति के बाद विश्व बाजार का प्रतिनिधित्व करने वाली दो ताकतवर संस्थाओं-अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक ने भारत सरकार के सामने कज॔ और अनुदान पाने के लिए शर्ते रखी है। इसका नाम है “ढांचा गत समायोजन कार्यक्रम” इसके तहत सरकार के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह देश की शिक्षा व स्वास्थ समेत समाज विकास और कल्याण जैसे कार्यक्रमो में खर्च कटौती करे। सरकार ने यह शर्त स्वीकार भी कर ली है।
फलस्वरूप जनता के सभी वर्गों को समतामूलक गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए सरकार की राजनीतिक इच्छा शक्ति घटती जा रही है ऐसा करने से विश्व बाजार की ताकतों का छिपा एजेंडा भारत वर्ष की विशाल सरकारी स्कूल शिक्षा जो भारत में लगभग 12 लाख स्कूलों की है को ध्वस्त कर उनकी जगह फीस लेने वाले निजी स्कूलों की स्थापना करने का है।
विश्व बैंक ने 1993-94 से सरकारी खर्च में कटौती की क्षति की आंशिक पूर्त के नाम पर शिक्षा के लिए कर्ज और अनुदान का कार्यक्रम शुरू किया जिसको जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी) के नाम से जाना जाता है केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर एक से आठ साल तक की प्रारंभिक शिक्षा पर लग भग 40000 करोड़ रुपये सालाना खर्च कर रही थी। वहीं विश्व बैंक ने स्वयं द्वारा प्रायोजित डीपीईपी में महज 500-1000 करोड़ रूपया खर्च करके भारत की स्कूली शिक्षा पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के घुस पैठ के फलस्वरूप भारत की पूरी स्कूल वयवस्था छिन्न -भिन्न हो गई है। कुल मिलाकर इस समय सरकार का एजेंडा शिक्षा का निजीकरण, बाजारीकरण, भगवाकरण और देश की शिक्षा को मुनाफा खोरी का धंधा बना देने का है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने पूरे देश में चलाए जा रहे हैं साक्षर भारत कार्यक्रम को 31 मार्च 2018 से बंद कर दिया है। और अब तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यू जी सी को भी खत्म करने का मन बना लिया है।
अब तो सरकार यह भी कर रही है कम संख्या के आधार पर पुरे देश में 4000 स्कूल बंद किए जा रहे हैं। देश के शिक्षा बजट की कटौती से अब भी 40% छात्रों व 38% छात्राओं के लिए शौचालय नहीं हैं, 54 % स्कूलों में चार दीवारी नहीं है, 43 % स्कूलों लाइब्रेरी नहीं है, 14 % स्कूलों में स्वच्छ पीने का पानी नहीं है।
देश के प्राथमिक स्कूलों में ही 12 लाख शिक्षकों की कमी है, और 35 % स्कूलों में केवल एक दो शिक्षक है जो पांचों कक्षाओं को पढ़ाते हैं। विश्व बाजार की ताकतें चाहती है कि भारत की शिक्षा खरीद फरोख्त की वस्तु बन जाए ताकि उससे मुनाफा कमाया जा सके। यदि वे सफल हो जाते है तो फिर शिक्षा के अधिकार कानून का क्या मायने देश में रह जायेंगे?