प्रमोद श्रीवास्तव
- गैर कांग्रेसी चेहरे के लिये फिलहाल मन नहीं बना पा रहे कांग्रेसी
- इतिहास में पहली बार कांग्रेस ने किसी दल-बदलू को बनाया है प्रत्याशी
- कांग्रेस की खाली थाथी में हांथ-पैर पटक रहे राकेश सचान
- अपनो की उपेक्षा से विशुद्ध कांग्रेसी क्षुब्ध, फिलहाल गठबंधन को हराने के लिये पूर्व सांसद की जारी है कसरत
फतेहपुर। गंगा और यमुना के दो-आबे की फतेहपुर संसदीय सीट पर बतौर प्रत्याशी गैर कांग्रेसी चेहरा विशुद्ध कांग्रेसियों के लिये बड़ी समस्या का सबब बन गया है। राहुल-प्रियंका की पसंद राकेश सचान का कभी भी कांग्रेस से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा और न ही कांग्रेसी कल्चर से वे लेसमात्र भी वाकिफ है।
कांग्रेस प्रत्याशी के बारे में जोर-शोर से जनमानस में हो रही चर्चा इसलिये भी खासी महत्वपूर्ण है। क्योंकि बमुश्किल एक सप्ताह पूर्व समाजवादी पार्टी द्वारा प्रत्याशी बनाने से इंकार कर देने के बाद पार्टी छोड़कर वे कांग्रेस में शामिल हुए थे और उन्हें एआईसीसी सदस्य द्वय विभाकर शास्त्री और ऊषा मौर्या पर तरजीह दी गई।
लोगों में तो यहाँ तक चर्चा है कि जब ऐसे ही प्रयोग करने थे तो पूर्व विधायक अमरनाथ सिंह अनिल, देवेन्द्र प्रताप सिंह गौतम, पूर्व चेयरमैन अजय अवस्थी, डा० निर्मल तिवारी, शेख एजाज बाक्सर में कौन सी कमी थी। उल्लेखनीय है कि आजादी के पहले की पार्टी कांग्रेस ने फतेहपुर जनपद में इस कदर प्रयोग-दर-प्रयोग किये कि अब तो यहाँ कांग्रेसी राजनीति की सीरत ही बदल गई है!
कांग्रेस इससे पहले कभी गैर कांग्रेसी चेहरे सुरेन्द्र सिंह गौतम, हाजी रफी अहमद, राजू लोधी एवं ओम् प्रकाश गिहार के नाम पर प्रयोग कर अपनो से दूर हुई तो कभी अप्रत्याशित निर्णयों से पार्टी का अंदरूनी ढाँचा चरमरा गया। २०१९ के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस ने बड़ा प्रयोग किया।
पार्टी की सदस्यता लेने के बमुश्किल एक सप्ताह के अन्दर राकेश सचान को फतेहपुर लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बना दिया गया। १९८४ के आम चुनाव के बाद एक अदद सांसद-विधायक के लिये तरस रही कांग्रेस के पास विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद गैर कांग्रेसी चेहरे से चुनावी वैतरणी पार लगाने की उसकी प्रयोगवादी सोच का परिणाम क्या होगा यह तो समय के गर्भ में है, किन्तु इतना जरूर है कि एक बार फिर विशुद्ध कांग्रेसियों की भावनायें आहत हुई है!
कुछ स्थानीय कांग्रेसियों ने इस निर्णय पर हाईकमान स्तर पर अपनी नाराजगी भी जाहिर की है तो तमाम दूसरे दलो की ओर मुखातिब भी होने लगे है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता भानु प्रताप सिंह गौतम का पार्टी छोड़ जाना कांग्रेस की इसी प्रयोगवादी नीति का स्पष्ट उदाहरण है। बताते चले कि आजादी के बाद से यहाँ हुए सत्रह लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने हमेशा पार्टी के वफादार लोगों को ही प्रत्याशी बनाया।
१९५२ में शिवदत्त उपाध्याय, १९५७ में अँसार हरवानी, १९६२ में वीबी केशकर, १९६७, १९७१ व १९७७ में सन्तबख्स सिंह, १९७८ में पंडित प्रेमदत्त तिवारी, १९८०, १९८४, १९८९ व १९९१ में हरीकृष्ण शास्त्री, १९९६ में राम प्यारे पाण्डेय, १९९८, १९९९ व २००९ में विभाकर शास्त्री, २००४ में खान गुफरान जाहिदी एवं पिछले २०१४ के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने ऊषा मौर्या को फतेहपुर सीट से प्रत्याशी बनाया था।
फतेहपुर सीट के लिये अब तक हुए लोस चुनावों में यह पहला अवसर है जब कांग्रेस ने गैर कांग्रेसी संस्कृति के संवाहक को विशुद्ध कांग्रेसियो के मुकाबले तरजीह दी है। यहाँ पर अकेले राकेश सचान के लिये बाहरी कहना शायद बेमानी होगी क्योंकि कांग्रेस ने प्रेमदत्त तिवारी, रामप्यारे पाण्डेय व उषा मौर्या के अलावा जितने भी प्रत्याशी मैदान में उतारे गये सभी बाहरी थे,
किन्तु राकेश और अन्य बाहरियो में काफी फर्क इसलिये भी था कि लगभग सभी कांग्रेसी संस्कृति से भली-भाँति वाकिफ थे और कभी कोई दूसरी पार्टी छोड़कर आया नहीं था और कोई भी जीत या हार के बाद कांग्रेस छोड़कर कही गया भी नहीं। पूर्व सांसद एवं सिर्फ लोकसभा चुनाव लदने के लिये समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए राकेश सचान २००८ के करीब से फतेहपुर की राजनीति में सक्रिय तो है,
किन्तु गैर कांग्रेसी कल्चर वाली समाजवादी पार्टी से वो दो बार २००९ व २०१४ का लोकसभा का चुनाव भी लड़े। एक बार जीते और और दूसरी बार जमानत तक नहीं बचा पाये। लगभग ११ वर्ष की फतेहपुर में राजनीति का उनका समय कानपुर से अप-डाउन में ज्यादातर बीता। फतेहपुर में उनका एक कमरा तक नहीं है। समूचा सिस्टम कानपुर का और समूचीं सोच आज भी कांग्रेसी!
जनपद के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो राकेश सचान का समाजवादी पार्टी ने टिकट काटा नहीं है और न ही गठबंधन का पेंच था। सूत्र बताते है कि वास्तव में विगत विधानसभा चुनाव में राकेश ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के समक्ष जब अपनी पत्नी के टिकट के लिये प्रतिष्ठा लगाई तो उन्होंने फतेहपुर लोकसभा सीट के लिये ध्यान केन्द्रित करने की सलाह दी,
किन्तु जब राकेश नहीं माने तो पत्नी को तो टिकट दे दिया, किन्तु फतेहपुर सीट पर समझौता करना पड़ सकता है की बात कहकर स्पष्ट कर दिया कि लोस चुनाव के हालात पर टिकट निर्भर होगा। जिस पर राकेश सचान ने हामी भी भर ली थी और जब सपा का बसपा से समझौता हुआ तो यह सीट बसपा कोटे में चली गई।
ये बात सही है कि अखिलेश चाहते तो राकेश प्रत्याशी होते क्योंकि पत्नी के लिये टिकट लेते समय सीट की लगभग सौदेबाजी हो गई थी। इसलिये राकेश का पत्ता साफ हो गया! बाद में कांग्रेस में शामिल होकर प्रत्याशी बन गये! जहाँ वे अभी भी समाजवाद ढूँढ रहे हैं।
चार दशक बाद गांधी परिवार ने प्रचार की दी दस्तक!