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मथुरा आये और ये मिठाई नहीं खाई तो कुछ नहीं खाया

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  • श्रावण मास में ही दुकानों पर दिखाई देती है ये खास मिठाई
  • पेडे के बाद मथुरा के घेवर के दीवाने हैं लोग
मथुरा। में वैसे तो हर तरफ खाने-पीने की दुकाने है। हर तरफ हर दो कदम पर मिठाई की दुकानें नजर आयेंगी। कचैडी, जलेबी की दुकानें नजर आ जाती हैं। यहां लोग चाट-पकौडी, मिठाई खाने के बडे शौकीन है। यहां की खास बात यह भी है कि सीजन के हिसाब से मिठाईयां तैयार होती हैं।
गजक, रेबडी, इमरती, घेबर, फेनी आदि। गजक रेबडी सर्दीयों में, इमरती केबल पित्र पक्ष यानी सितम्बर, अक्टूबर में तैयार होती हैं। घेबर फेनी सावन के महिने में बनाई जाती है। सावन के महीने में बाजारों में तैयार होने वाली विशेष मिठाई घेबर की महक भी अपनी ओर लालायित करती है।
इन दिनों शहर की हर मिठाई की दुकान पर घेबर मिल जायेगा। घेबर की विक्री हरियाली तीज से रक्षाबंधन तक होती है इसके लिये  दुकानदार महिनों से सूखा घेबर बना कर रखने लगे हैं सीजन शुरू होते ही इनको गरम करके इस पर मलाई, खीज, खोआ, मेवा आदि लगा कर दुकानों पर सजा लेते हैं।

कैसे बनता है घेबर और कैसे सजाया जाता है

घेबर का बैसे तो कोई इतिहास नहीं हैं कि इसको किसने तैयार किया तथा कब और क्यों तैयार किया लेकिन घेबर मुख्य रूप से राजस्थान में ज्यादा तैयार किया जाता है। जयपुर में घेबर को विभिन्न तरीकों से तैयार कर व सजाया जाता है। घेबर को एक गोल कढाई में रिंग नुमा सांचों में खमीर उठा हुआ मैदा पतली धार के साथ गरम घी में डाला जाता है।
गरम घी में मैदा एक रूप ले लेता है जिसको निकाल कर पहले तो इस पर चीनी की चासनी चढाई जाती थी। लेकिन अब इस मिठाई का भी रूप समय के अनुसार बदल गया है। अब घेबर मलाई, खीज, खोआ, मेवा से तैयार किया जाता है। जबकि फैनी भी मैदा से ही बनती है जिसको खींच खींच कर रेशों में तैयार किया जाता है मीठी फैनी व सादा फैनी बनती है।
कुछ लोग मीठी फैनी खाते हैं तो कुछ दूध में फीकी फैनी डालकर उपर से मीठा डालकर खाते हैं। मैदा से निर्मित घेबर एक ऐसी मिठाई है, जिसको खाने का मन हर किसी को करता है। पहले यह घेबर अधिक चासनी में बनती थी जो गांव के लोग खूब मजे से खाते थे।
स्वास्थ्य की चिन्ता ने लोगों को ज्यादा चीनी से बनने वाली मिठाईयों से दूर कर दिया है। अब हर कोई अपने स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित रहता है जिसके कारण अब वह चीनी वाला घेबर बाजार में दिखाई नहीं देता है साथ ही अब उसके खरीददार भी नही हैं सब मलाई वाला घेबर ही लेना पसन्द करते हैं।

पिछले वर्ष के मुकावले घेबर के दामों में इजाफा हुआ है

घेबर के रेट पिछली साल की अपेक्षा इस बार ज्यादा बढ़े हैं। रिफाइंड से तैयार घेबर तीन सौ अस्सी रुपये प्रति किलो है तो देसी घी से तैयार घेबर 450-500 रुपये तक बिक रहा है। पिछले साल रिफाइंड से निर्मित घेबर 180-280 रुपये तक बिका और देसी घी का 350-420 रुपये तक बिका था।
वनस्पति घी से निर्मित जो घेबर पिछली साल 280 रुपये प्रति किलो था अब वह बाजार में 300 से 350 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। सादा घेबर 200 से 280 रुपये प्रति किलो है। इसी तरह देशी घी से निर्मित घेबर पिछली साल 280 से 300 रुपये प्रति किलो था, लेकिन अब 400 से 500 रुपये प्रति किलो बिक रहा है।
सादा घेबर 300 से 350 रुपये प्रति किलो है। रक्षाबंधन पर्व के लिए घेबर की बिक्री भी शुरू हो गई है। शहर में जगह-जगह घेबर की दुकानें सज गई हैं। रक्षाबंधन पर्व के लिए दूर दराज में रहने वाले रिश्तेदारों और परिजनों को घेबर पैकिंग करा कर भेजा जा रहा है। रक्षाबंधन पर्व पर दुकानदारों को भी अच्छी दुकानदारी होने की उम्मीदें हैं।

रक्षाबन्धन पर ही क्यों बनता है घेबर

जिसका सावन के महीने में विशेष महत्व है। सावन के महिने के बाद इस घेबर के मिठाई की दुकानों पर दर्शन नहीं होते हैं। इस महीने में पडने वाले त्योहार हरियाली तीज, रक्षाबंधन पर इस मिठाई का ही चलन है। हरियाली तीज पर पति अपनी पत्नियों के लिए घेबर खरीदकर ले जाते हैं।
नवविवाहित युवक ससुराल जाते हैं तो वह घेबर लेकर जाते हैं। इसके बाद रक्षाबंधन पर बहन अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधने के बाद घेबर से ही उनका मुंह मीठा कराती हैं। इस सब के चलते घेबर की जमकर डिमांड रहती है। घेबर की सीजनल दुकानें भी इस समय सज जाती हैं।
दुकानदार भी घेबर का स्टाक करना शुरू कर देते हैं। घेबर की मिठाई मैदा से तैयार होती है। इसे विशेष प्रकार की कढ़ाई में रिफाइंड या घी में पकाया जाता है। इसके बाद इस पर चासनी चढ़ाई जाती है और फिर विभिन्न प्रकार के फ्लेवर से सजा दिया जाता है।
दुकानदार सावन भादों के महिने में बनने वाली मिठाई घेबर के लिये काफी व्यस्त हो जाते हैं। हरियाली तीज और रक्षाबंधन तक दुकानदारों के सारे गोदाम खाली हो जाते हैं। शहर में प्रमुख मिठाई विक्रेताओं के अलावा चैक बाजार, होली गेट, मण्डी रामदास, शहर के हर गली मौहल्ले में स्पेशल दुकान सज जाती हैं।

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